Sunday, 16 February 2014

               राजनीतिक शहादत पर उठे सवाल

आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल द्धारा पिछले दिनों दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने पर इतना तो साफ हो गया की खुद से इस्तीफा देने और इस्तीफा मांगे जाने में ज़मीन आसमान का अंतर है। अभी तक हमने मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों को अपनी सरकार या खुद की ग़लतियों पर इस्तीफा देते तो देखा है। लेकिन जिस तरह से अरविंद केजरीवाल ने केवल एक बिल की खातिर इस्तीफा दिया उससे कई सवाल उठने लाज़मी हैं। कुछ ने इसे केजरीवाल का मैदान छोड़कर भागना कहा तो कुछ ने उन्हें अनाड़ी सियासतदां तक कह दिया। सिर्फ 49 दिनों तक दिल्ली पर हुकूमत कर चुकि केजरीवाल सरकार का शायद कोई भी दिन ऐसा नहीं गुज़रा जिस दिन किसी नए विवाद ने जन्म न लिया हो।

इसमें कोई शक नहीं के जिस पार्टी को अस्तित्व में आए 2 साल भी न हुए हों उसका दिल्ली की सत्ता को पा लेना कोई आसान काम नहीं था। कांग्रेस के भ्रष्टाचार को हथकंडा बनाकर सियासत में क़दम रखने वाले आम आदमी और उनकी पार्टी को क्या मालूम था की कांग्रेस के समर्थन से ही उसे दिल्ली में सरकार बनानी पड़ेगी। दिल्ली में सरकार बनाने के लिए केजरीवाल ने मत-संग्रह तो करवा लिया लेकिन उनसे शायद जो सबसे बड़ी चूक हुई वो ये की उन्होंने इस्तीफा देने से पहले मत-संग्रह नहीं कराया, उनका ये क़दम अपने आप में कई सवाल खड़े कर रहा है। कई लोग इसे लोकसभा चुनाव की बेचैनी बता रहे हैं तो कुछ जल्दबाज़ी में उठाया गया क़दम। केजरीवाल के इस क़दम से इतना तो साफ है कि जनता के बीच बने विश्वास को आपने कुछ हदतक तो खोया है। विधानसभा चुनाव से पहले आम आदमी पार्टी का मुद्दा जनलोकपाल था जिसकी बदौलत उसने दिल्ली में सरकार बनाई लेकिन दिल्ली को जनलोकपाल बिल नहीं मिल सका और सरकार ने अपने पूरे मंत्रीमंडल के साथ इस्तीफा भी दे दिया। सियासत के जानकार जो अंदाज़ा लगा रहे थे आखिर में वह ही सच हुआ। तो क्या ये समझा जाए की लोकसभा चुनाव में भी पार्टी इसी जनलोकपाल के बहाने अपनी नैय्या पार लगाएगी।

केजरीवाल के इस्तीफे की टाइमिंग या फिर कहें ये राजनीतिक शहादत उनको आगे फायदा पहुंचाएगी या नुक़सान ये तो वक्त ही बताएगा। लेकिन विधानसभा चुनाव में  अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी के नेताओं ने जिस तरह से कांग्रेस के दिग्गजों को धूल चटाई उसने उन सियासी धुरंधरों को ये तो दिखा दिया की सत्ता किसी की जागीर नहीं बल्कि जनता चाहे तो सियासत के बड़े से बड़े सूरमाओं को अर्श से फर्श पर और फर्श से अर्श पर पहुंचा देती है।

फिलहाल आपने लोकसभा चुनाव के लिए अपने उम्मीदवारों की पहली लिस्ट जारी कर एक और चुनावी रण का आग़ाज़ कर दिया है। एक तरफ कांग्रेस के दिग्गज होंगे तो दूसरी तरफ आपके सिपाही। वैसे अबतक जो राजनैतिक दल आम आदमी पार्टी को कम आंक रहे थे अब शायद वो ये ग़लती न करें और इस दफा के लोकसभा चुनाव में वो देखने को मिले जो इतिहास में अबतक देखने को नहीं मिला। बहरहाल, अभी ये देखना दिलचस्प होगा कि देश का आम आदमी देश की सत्ता के सिंहासन पर किसे बिठाता है।

Sunday, 2 February 2014

गुम हुई मुद्दे की बात

देश में आम चुनाव जैसे-जैसे नज़दीक आ रहे हैं, सियासी पार्टियां एक दूसरे पर निशाना साधने का मौक़ा नहीं छोड़ रहीं। सोनिया गांधी अपने भाषण में बीजेपी पर ज़हर की खेती करने का आरोप लगाती हैं तो नरेन्द्र मोदी जवाबी हमला करते हुए कांग्रेस को ही सबसे ज़हरीला और उसपर ज़हर बोने का आरोप लगा रहे हैं।

दरअसल हक़ीकत देखी जाए तो चुनावी रैलियों में अवाम के मुद्दों को नज़रअंदाज़ करके पार्टियां एक दूसरे पर निशाने साधने में मसरूफ दिखाई दे रही हैं। एक दूसरे को घेरने का जो नज़रिया है वो सियासी दलों को जनता के असल मुद्दों से दूर ले जा रहा है। असल मुद्दे की बात गुम होती नज़र आ रही है। देश की सियासत में ये परम्परा अब आम होती जा रही है। जिसका ताज़ा उदाहरण  कर्नाटक के गुलबर्गा में सोनिया गांधी और मेरठ में नरेन्द्र मोदी की शंखनाद रैली में देखने को मिला।

मोदी ने अपनी रैली में कांग्रेस समेत यूपी की अखिलेश सरकार पर निशाना तो साधा लेकिन उन्हें शायद इस बात का ख्याल नहीं रहा कि वो मुज़फ्फरनगर दंगों की निंदा करते और दोषियों को ठोस सज़ा दिए जाने की मांग करते। शायद उससे लोगों के बीच एक पॉज़ेटिव संदेश जाता। हालांकि जिन बीजेपी नेताओं पर मुज़फ्फरनगर में ज़हर घोलने के आरोप लगे थे और जो कुछ दिन जेल में भी रहे थे उन्हें मोदी एक सभा में खुद माला पहना चुके हैं।

नरेन्द्र मोदी को इतना बखूबी मालूम है कि 2014 के रण में अल्पसंख्यकों के बिना भी जीत के आंकड़े को वो छू सकते हैं। शायद इसीलिए वो अपने भाषणों में अक्सर दलितों, किसान बहु-बेटियां की बात तो करते हैं लेकिन उन अल्पसंख्यकों की बात नहीं करते जिनके विकास के बिना देश का विकास अधूरा है।

मेरठ में आज़ादी के बाद से अबतक सैकड़ों दंगे हुए, हज़ारों लोग मरे, नफरत के बीज बोए गये, सत्ता में कई पार्टियां आईं और गईं लेकिन किसी ने भी वहां की अवाम में ये यकीन पैदा करने की कोशिश नहीं की जिससे वो खुद को सुरक्षित समझें। आखिर ऐसा ताना-बाना, सरकार और नेता कहां से आएंगे जो जनता को सवाल खड़े करने का मौक़ा न दे। अगर विभिन्न पार्टी शासित प्रदेशों में वहां की सरकारें काम करें और किसी को भी उंगाली उठाने का मौक़ा न दें तो ये एक दूसरे को कटघरे में खड़ा करने का चलन भी शायद खत्म हो जाए।  

मोदी ने मेरठ की रैली में ये ऐलान तो कर दिया की अगर वो देश की सत्ता में आए तो यूपी को दंगा-मुक्त प्रदेश बनाएंगे। लेकिन इसकी शुरूआत अगर वो मज़फ्फरनगर दंगों के दोषियों को सज़ा दिए जाने की मांग के साथ करते तो अच्छा होता। ज़ाहिर है सियासत में भी सभी के अपने-अपने तौर-तरीक़े हैं लेकिन असल मुद्दे की बात कम ही नेता करते हैं और जो करता है अवाम उसे ही मौक़ा भी देती है। फिलहाल इस चुनावी मौसम में सियासी पार्टियां रैलियां कर शक्तिप्रदर्शन दिखाती रहेंगी, लेकिन जनता के पास लोकतंत्र में सबसे बड़ी ताक़त है जिसका उसे सही इस्तेमाल करने की ज़रूरत है।