2013 के न भूलने वाले ज़ख्म
नए साल की खुशियों के बीच
शायद बहुत सारी बीती बातें भुला दी जाएंगी। लेकिन क्या सभी कुछ? यह कैसे भूल जाया जाए कि पिछले साल, यानी 2013 में इंसानियत एक बार फिर शर्मसार करने वाले दंगों की भेंट चढ़ी। गुजरात दंगा
पीड़ितों के जख्म अभी पूरी तरह ठंडे नहीं हुए हैं। लेकिन मुजफ्फरनगर दंगों ने समाज
को फिर से कठघरे में खड़ा किया। मुझे इस बहस में नहीं पड़ना कि दंगे क्यों हुए, इसका जिम्मेदार और असल गुनहगार कौन है? लेकिन यह सवाल मन में बार-बार
उठ रहा है कि क्या सरकारें वाकई इतनी बेपरवाह और गैरजिम्मेदार हो सकती हैं? बकौल एक शायर के ‘मुझे कुछ ज़ख्म भी ऐसे मिले हैं, की जिनका वक्त भी मरहम नहीं है’। 2014 का नया साल तो आ गया है लेकिन ये दंगा पीड़ितों के लिए वाक़ई नई उम्मीद लेकर आएगा इसका जवाब शायद किसी के पास नहीं है। जहां हुकूमत खुद बेकस और मजबूर मालूम हो। जिस देश में अब भी सैकड़ों लोग दंगों की भेट चढ़ जाते हों वहां विकास मॉडल और ह्यूमन डवलपमैंट इंडेक्स जैसे शब्द महज़ दिखावा लगते हैं।
आज लगभग चार महीने गुज़र जाने के बाद भी मुज़फ्फरनगर
दंगा पीड़ित अपने घरों को वापिस लौटने के लिए तैयार नहीं हैं। दंगों में अपनों को
खो चुके कई लोगों का कहना है कि वो घर नहीं जाएंगे भले ही जिंदगी चली जाए। आखिर
उनके मन में बैठ चुके खौफ को दूर करने और उन्हें सुरक्षित उनके वतन में बसाने की
ज़िम्मेदारी किसकी है ? ऊपर से अगर समाजवादी पार्टी के मुखिया और सूबे के अधिकारी
बड़बोले बयान देकर सारी हदें लांघ जायें तो वाक़ई मज़लूमों का दर्द कम होने के
बजाय और बढ़ना तय है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट में यूपी सरकार की ये सफाई की
मुज़फ्फरनगर दंगे गुजरात दंगों की तरह नहीं थे। खुद कई सवाल खड़े करता है।
हालांकि एक दुसरा पहलू और कढ़वी
सच्चाई ये भी है कि ऐसी घटनाओं के गुनहगार हम सभी हैं। दंगों के बाद जो आपसी
विश्वास ध्वस्त हुआ है उसका ज़िम्मेदार इस समाज का वो ताना-बाना ही है जो बार-बार
ऐसी घटनाओं को होने से नहीं रोक पाता। आज जो दंगा पीड़ित राहत कैम्पों में रह रहे
हैं उनका भविष्य अंधकार में है। कितनी मांओं की गोद सुनी हो चुकि है। कितनों का
सुहाग उजड़ गया और कितने बच्चे यतीम हो गये। इस हिंसा में 60 से ज़्यादा लोगों ने
अपनी जान गंवाई और 40 हज़ार से अधिक लोग विस्थापित हो गये। अगर इतिहास उठाकर देखें
तो देश की आज़ादी के बाद लोगों का ये सबसे बड़ा विस्थापन है।
हमारी एकता की मिसाल पूरी दुनिया में दी जाती है। जाहिर है, जब इस दुनिया को यह पता चलता है कि नफरत के बीज बोने वाले यहां
अब भी चैन की बंसी बजा रहे हैं तो शर्म से उन देशवासियों का सिर झुक जाता है जो
नफरत की आग को हमेशा से बुझाते आए हैं। पिछली घटनाओं से अगर हमने सबक लिया होता तो
ऐसे झकझोर देने वाले वाकयों से बचा सकता था और इनकी वजह से सियासत की यह शक्ल भी
हमें नहीं देखने को मिलती। ऐसी सरकारें दरअसल अपने सूबे में बने रहने का हक खो
देती हैं जो अपने नागरिकों को महफूज नहीं रख सकतीं। सवाल यह भी है कि किसी को अपने
खिलाफ अंगुली उठाने या फिर मुंह खोलने का मौका ही क्यों दिया जाए।
यह 2014
का आगाज है। इन दंगा पीड़ितों के
जख्म शायद वक्त के साथ भर जाएं। लेकिन इस बात की गारंटी कौन देगा कि फिर से देश
में कहीं और कभी भी दंगे नहीं होंगे? आगे कभी
मुल्क की फिजां में जहर घुलने नहीं दिया जाएगा, इंसानियत फिर शर्मसार नहीं होगी? ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब हमारे रहनुमाओं को तलाशना है।
फिलहाल बस यह एक उम्मीद भर है कि शायद हमारा आने वाला कल आज से बेहतर और सुरक्षित
हो पाए।