दरगाह के बहाने
हाल ही में परिवार के साथ श्रीनगर के बीचों-बीच स्थित हज़रत बल दरगाह के दर्शन के लिये पहुंचा। इस बार मक़सद दरगाह की ज़ियारत था इसलिए यहां आने से पहले मेरे ज़हन में कोई सवाल नहीं था। श्रीनगर एयरपोर्ट उतरते ही होटल पहुंचने के बाद निकल पड़े दरगाह की ज़ियारत के लिये। दरगाह के गेट पर दाना चुग रहे सैकड़ों कबूतर इस बात की गवाही दे रहे थे कि घाटी में सब कुछ शांत है। मस्जिद के गेट पर खड़े सुरक्षाबलों ने हमारी तलाशी ली और फिर मस्जिद में जाने दिया। आलीशान मस्जिद का माहौल एक रूहानी सुकून का ऐहसास दिला रहा था। फिर मेरे मन में सवाल आया कि कहीं दरगाह हज़रत बल पर मेरा आना कश्मीर को फिर से जानने का बहाना तो नहीं। अगले दिन हम पहलगाम की यात्रा पर निकल पड़े। गाड़ी से उतरे तो घोड़ों पर बैठकर वादियों का खूबसूरत नज़ारा लिया। वादियों का दीदार करके जब हम वापस नीचे पहुंचे तो मालूम हुआ कि वहां तैनात सीआरपीएफ़ के जवानों ने किसी बात पर सैकड़ों गाड़ियों के शीशे तोड़ दिऐ और फिर ग़ुस्साई भीड़ ने पत्थरबाज़ी शुरू कर दी। हालात खराब होते देख हम वहां से वापस लौट आए। समझ नहीं आ रह था कि आख़िर मामला क्या है। हमारे साथ मौजूद स्थानीय ड्राइवर ने बताया कि यहां अक्सर ऐसा होता रहता है, उसकी ये बात कुछ अजीब सी लगी लेकिन वहां से सुरक्षित निकलना प्राथमिकता थी। पहलगाम और वहां हुआ हंगामा पीछे छूट चुका था लेकिन उसकी वजह जानने को लेकर बेसब्री बढ़ती जा रही थी। लौटते हुए रास्ते में अमरनाथ में बाबा बर्फ़ानी के दर्शन के लिये जा रहे बड़ी तादाद में श्रद्धालु नज़र आए। उनकी सुरक्षा हमेशा से राज्य और केंद्र सरकार के लिये चुनौती रही है इसलिये चप्पे-चप्पे पर यहां तक कि खेत खलिहानों में भी सीआरपीएफ और सीमा सुरक्षा बल के जवान मौजूद थे। कभी-कभी तो ऐसा महसूस हुआ मानो घाटी में बाशिंदों की आवाजाही कम और सुरक्षाकर्मियों की गहमागहमी अधिक हो। जैसे ही कोई वाहन चेकपोस्ट से तेज़ी से गुज़रता बंदूक़धारी जवानों के माथे पर एक शिकन सी उभर आती। जो ज़िम्मेदारी जम्मू-कश्मीर पुलिस के कंधों पर होनी चाहिए थी आज वो ज़िम्मेदारी इन जवानों को निभानी पड़ रही है। पिछले कई बरसों से घाटी में पनप रहे हालात शायद इसकी सबसे बड़ी वजह हैं। राज्य में सशस्त्र बल विशेष अधिनियम को हटाने की मांग लंबे समय से उठती रही है लेकिन सेना के आगे केन्द्र सरकार की अब तक एक नहीं चल पाई है। शहर के कई इलाक़े और दुकानें बंद थीं। बंद की वजह हाल ही में दस्तगीर दरगाह पर लगी आग और उसके बाद पैदा हुए हालात थे। सोचा की जाएं लेकिन मन में बैठा डर और हालात इस बात की क़तई इजाज़त नहीं दे रहे थे। देर शाम थकी हालत में हम अपने आसरे पर पहुंचे तो वहां काम करने वाले लोगों में से एक से हमारी गुफतुगू हुई। एक शख्स ने मुझसे मुक़ातिब होकर पूछा, घूम आए.. मैंने मुस्कुराते हुए सिर हिलाया। अगले दिन सुबह हम सोनमर्ग के लिए रवाना हो गये। रास्ते में कुदरत की खुबसूरती देखकर ख्याल आया कि आखिर इस जन्नत को किसकी नज़र लग गयी जो इसकी पहचान अशांत भूमि के रूप में होने लगी। आखिर कश्मीर पूरी दूनिया को शांति व सहअस्तित्व का पाठ पढ़ाने में क्यों नाकाम हो गया। अगर ऐसा नहीं है तो जहांगीर ये क्यों कहता कि, गर फिरदौस बर रुए ज़मीं अस्त, हमीं अस्तु, हमीं अस्तु, हमी अस्तु। यानी अगर धरती पर कहीं जन्नत है, तो यही है, यही है, यही है। कश्मीर में बह रही नदियां और उनके प्रवाह, डल जैसी झीलें, अखरोट और चिनार के पेड़, वहां की अनमोल विरासत हैं जिनका बेहतरीन प्रतीक है निशात, शालीमार बाग़ और यादें संजोया परी महल। लोगों की मज़बूती और विनम्रता सम्मोहक विशेषताओं को और खास बनाती है। वे अपने आत्मसम्मान में दर्द को और दर्द में आत्मसम्मान को सहजना जान गये हैं। कश्मीर विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों से जब मेरी मुलाक़ात हुई तो उन छात्रों के फौलादी इरादों को देखकर मैं हैरान रह गया। वे अतीत की जकड़न में कुछ पल के लिए भी बंधे नहीं रहना चाहते। वे अपनी समस्याओं का समाधान चाहते हैं, जो सियासत से दूर हो, जो मुल्क और महादेश से परे हो। वे आशावादी भी हैं और यथार्थवादी भी। अब उनका भविष्य ही उनके लिए सबकुछ है।