Tuesday, 17 July 2012
Sunday, 25 March 2012
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सैयद अली अख्तर भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है और यहां लोकतंत्र की जड़ें काफी गहरी हैं। लेकिन कई बार कुछ घटनाओं के चलते यहां व्यवस्था कठघरे में खड़ी दिखती है। सभी जानते हैं कि हमारा देश आतंकवाद की समस्या से जूझ रहा है। हम सबको इस लड़ाई में सहयोग करना चाहिए। लेकिन कई ऐसी घटनाएं सामने आ चुकी हैं जिसमें केवल शक की बुनियाद पर कुछ लोगों को आतंकवादी घोषित कर दिया गया और उन्हें तब तक कैद और प्रताड़ना के बीच अपना वक्त काटना पड़ा, जब तक कुछ अदालतों ने उन्हें निर्दोष नहीं घोषित कर दिया। पिछले दिनों दिल्ली की एक आतंकी वारदात के बाद जिस तरह वरिष्ठ पत्रकार मोहम्मद अहमद काजमी पर आरोप लगे, उससे एक बार फिर यह आशंका जाहिर की जा रही है कि क्या हमारी व्यवस्था केवल शक के आधार पर काम करती है। मामले को आतंकवाद से जुड़ा देख कर इंसानियत की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाले लोग भी चुप रह गए। इसमें कोई शक नहीं कि आतंकी घटनाओं को अंजाम देने वाले वास्तविक दोषियों को सजा मिलनी चाहिए, लेकिन आखिर ऐसा क्यों है कि हमारी जांच एजेंसियां किसी भी घटना को रोक पाने के बजाय विदेशी जांच एजेंसियों के दबाव में आकर इधर-उधर हाथ-पैर मारने लगती हैं। हर बार जब कोई आतंकवादी घटना घटती है तो किसी न किसी आतंकवादी संगठन का नाम जरूर आता है। इजराइली राजनयिक की गाड़ी पर हुए हमले के तार ईरान से जोड़ कर जरूर देखे जा रहे हैं, लेकिन इस बार किसी आतंकवादी संगठन का नाम सामने नहीं आया। सवाल है कि इजराइल द्वारा ईरान पर बनाया जा रहा यह दबाव कहीं अमेरिकी-इजराइल नीति का हिस्सा तो नहीं! एक मामला सुलझ भी नहीं पाता कि दूसरी घटना घट जाती है और हमारी जांच एजेंसियां उसके तार जोड़ने में लग जाती हैं। क्या काजमी भी उसी व्यवस्था के शिकार हुए जिसमें किसी भी आतंकी घटना के बाद शक के घेरे में कोई मुसलमान ही आता है? जांच एजेंसियां जांच करें, इसमें किसी को एतराज नहीं होना चाहिए। लेकिन जांच को भटका कर किसी को कसूरवार बताने का रिवाज जम्हूरी हिंदुस्तान के लिए अच्छा नहीं है। काजमी एक स्वतंत्र पत्रकार रहे हैं, इसके बावजूद उनकी रिपोर्टिंग में वह धार देखी गई जो अमूमन दुनिया के बड़े मीडिया समूहों में भी नहीं देखा जाता है। तो क्या आज उन्हें अमेरिका और इजराइल की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने की कीमत चुकानी पड़ रही है? मुझे नहीं मालूम कि मोहम्मद अहमद काजमी के साथ क्या होगा, लेकिन इतना जरूर पता है कि ऐसे लोग बेगुनाह साबित हो जाने के बाद भी संदेह की नजर से देखे जाते हैं। अपने पर लगे दाग को यह मिटाने की कोशिश भी करें, तो वे साफ नहीं होते। पूरी जिंदगी समाज के ताने को सहना एक अलग यातना है। एक पत्रकार जो भारतीय लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का प्रतिनिधित्व करता आया हो, जो पत्रकार की हैसियत से दूसरों से प्रश्न करता आया हो, आज वह खुद सवालों के घेरे में है। जब जांच एजेंसियां उनसे जवाब-तलब कर रही होंगी तो उस वक्त हमारा लोकतंत्र चुपचाप खड़ा अपने कुछ सवालों के बारे में सोच रहा होगा। इस सबके बीच भारत और ईरान के रिश्तों में अगर दरार पड़ती तो उसे एक स्वाभाविक घटना विकास के रूप में देखा जाना चाहिए। कुछ बाहरी ताकतें हैं जो चाहती हैं कि विकासशील राष्ट्रों के बीच फूट डाल कर उन्हें विकसित होने से रोकें। जरूरत इस बात की है कि उनकी मंशा को समझते हुए भारत और ईरान के बीच पुराना विश्वास बहाल रखा जाए। |
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