Tuesday, 17 July 2012

दरगाह के बहाने

हाल ही में परिवार के साथ श्रीनगर के बीचों-बीच स्थित हज़रत बल दरगाह के दर्शन के लिये पहुंचा। इस बार मक़सद दरगाह की ज़ियारत था इसलिए यहां आने से पहले मेरे ज़हन में कोई सवाल नहीं था। श्रीनगर एयरपोर्ट उतरते ही होटल पहुंचने के बाद निकल पड़े दरगाह की ज़ियारत के लिये। दरगाह के गेट पर दाना चुग रहे सैकड़ों कबूतर इस बात की गवाही दे रहे थे कि घाटी में सब कुछ शांत है। मस्जिद के गेट पर खड़े सुरक्षाबलों ने हमारी तलाशी ली और फिर मस्जिद में जाने दिया। आलीशान मस्जिद का माहौल एक रूहानी सुकून का ऐहसास दिला रहा था। फिर मेरे मन में सवाल आया कि कहीं दरगाह हज़रत बल पर मेरा आना कश्मीर को फिर से जानने का बहाना तो नहीं। अगले दिन हम पहलगाम की यात्रा पर निकल पड़े। गाड़ी से उतरे तो घोड़ों पर बैठकर वादियों का खूबसूरत नज़ारा लिया। वादियों का दीदार करके जब हम वापस नीचे पहुंचे तो मालूम हुआ कि वहां तैनात सीआरपीएफ़ के जवानों ने किसी बात पर सैकड़ों गाड़ियों के शीशे तोड़ दिऐ और फिर ग़ुस्साई भीड़ ने पत्थरबाज़ी शुरू कर दी। हालात खराब होते देख हम वहां से वापस लौट आए। समझ नहीं आ रह था कि आख़िर मामला क्या है। हमारे साथ मौजूद स्थानीय ड्राइवर ने बताया कि यहां अक्सर ऐसा होता रहता है, उसकी ये बात कुछ अजीब सी लगी लेकिन वहां से सुरक्षित निकलना प्राथमिकता थी। पहलगाम और वहां हुआ हंगामा पीछे छूट चुका था लेकिन उसकी वजह जानने को लेकर बेसब्री बढ़ती जा रही थी। लौटते हुए रास्ते में अमरनाथ में बाबा बर्फ़ानी के दर्शन के लिये जा रहे बड़ी तादाद में श्रद्धालु नज़र आए। उनकी सुरक्षा हमेशा से राज्य और केंद्र सरकार के लिये चुनौती रही है इसलिये चप्पे-चप्पे पर यहां तक कि खेत खलिहानों में भी सीआरपीएफ और सीमा सुरक्षा बल के जवान मौजूद थे। कभी-कभी तो ऐसा महसूस हुआ मानो घाटी में बाशिंदों की आवाजाही कम और सुरक्षाकर्मियों की गहमागहमी अधिक हो। जैसे ही कोई वाहन चेकपोस्ट से तेज़ी से गुज़रता बंदूक़धारी जवानों के माथे पर एक शिकन सी उभर आती। जो ज़िम्मेदारी जम्मू-कश्मीर पुलिस के कंधों पर होनी चाहिए थी आज वो ज़िम्मेदारी इन जवानों को निभानी पड़ रही है। पिछले कई बरसों से घाटी में पनप रहे हालात शायद इसकी सबसे बड़ी वजह हैं। राज्य में सशस्त्र बल विशेष अधिनियम को हटाने की मांग लंबे समय से उठती रही है लेकिन सेना के आगे केन्द्र सरकार की अब तक एक नहीं चल पाई है। शहर के कई इलाक़े और दुकानें बंद थीं। बंद की वजह हाल ही में दस्तगीर दरगाह पर लगी आग और उसके बाद पैदा हुए हालात थे। सोचा की जाएं लेकिन मन में बैठा डर और हालात इस बात की क़तई इजाज़त नहीं दे रहे थे। देर शाम थकी हालत में हम अपने आसरे पर पहुंचे तो वहां काम करने वाले लोगों में से एक से हमारी गुफतुगू हुई। एक शख्स ने मुझसे मुक़ातिब होकर पूछा, घूम आए.. मैंने मुस्कुराते हुए सिर हिलाया। अगले दिन सुबह हम सोनमर्ग के लिए रवाना हो गये। रास्ते में कुदरत की खुबसूरती देखकर ख्याल आया कि आखिर इस जन्नत को किसकी नज़र लग गयी जो इसकी पहचान अशांत भूमि के रूप में होने लगी। आखिर कश्मीर पूरी दूनिया को शांति व सहअस्तित्व का पाठ पढ़ाने में क्यों नाकाम हो गया। अगर ऐसा नहीं है तो जहांगीर ये क्यों कहता कि, गर फिरदौस बर रुए ज़मीं अस्त, हमीं अस्तु, हमीं अस्तु, हमी अस्तु। यानी अगर धरती पर कहीं जन्नत है, तो यही है, यही है, यही है। कश्मीर में बह रही नदियां और उनके प्रवाह, डल जैसी झीलें, अखरोट और चिनार के पेड़, वहां की अनमोल विरासत हैं जिनका बेहतरीन प्रतीक है निशात, शालीमार बाग़ और यादें संजोया परी महल। लोगों की मज़बूती और विनम्रता सम्मोहक विशेषताओं को और खास बनाती है। वे अपने आत्मसम्मान में दर्द को और दर्द में आत्मसम्मान को सहजना जान गये हैं। कश्मीर विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों से जब मेरी मुलाक़ात हुई तो उन छात्रों के फौलादी इरादों को देखकर मैं हैरान रह गया। वे अतीत की जकड़न में कुछ पल के लिए भी बंधे नहीं रहना चाहते। वे अपनी समस्याओं का समाधान चाहते हैं, जो सियासत से दूर हो, जो मुल्क और महादेश से परे हो। वे आशावादी भी हैं और यथार्थवादी भी। अब उनका भविष्य ही उनके लिए सबकुछ है।

Sunday, 25 March 2012





लोकतंत्र की कसौटी

सैयद अली अख्तर 

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है और यहां लोकतंत्र की जड़ें काफी गहरी हैं। लेकिन कई बार कुछ घटनाओं के चलते यहां व्यवस्था कठघरे में खड़ी दिखती है। सभी जानते हैं कि हमारा देश आतंकवाद की समस्या से जूझ रहा है। हम सबको इस लड़ाई में सहयोग करना चाहिए। लेकिन कई ऐसी घटनाएं सामने आ चुकी हैं जिसमें केवल शक की बुनियाद पर कुछ लोगों को आतंकवादी घोषित कर दिया गया और उन्हें तब तक कैद और प्रताड़ना के बीच अपना वक्त काटना पड़ा, जब तक कुछ अदालतों ने उन्हें निर्दोष नहीं घोषित कर दिया। पिछले दिनों दिल्ली की एक आतंकी वारदात के बाद जिस तरह वरिष्ठ पत्रकार मोहम्मद अहमद काजमी पर आरोप लगे, उससे एक बार फिर यह आशंका जाहिर की जा रही है कि क्या हमारी व्यवस्था केवल शक के आधार पर काम करती है। मामले को आतंकवाद से जुड़ा देख कर इंसानियत की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाले लोग भी चुप रह गए।
इसमें कोई शक नहीं कि आतंकी घटनाओं को अंजाम देने वाले वास्तविक दोषियों को सजा मिलनी चाहिए, लेकिन आखिर ऐसा क्यों है कि हमारी जांच एजेंसियां किसी भी घटना को रोक पाने के बजाय विदेशी जांच एजेंसियों के दबाव में आकर इधर-उधर हाथ-पैर मारने लगती हैं। हर बार जब कोई आतंकवादी घटना घटती है तो किसी न किसी आतंकवादी संगठन का नाम जरूर आता है। इजराइली राजनयिक की गाड़ी पर हुए हमले के तार ईरान से जोड़ कर जरूर देखे जा रहे हैं, लेकिन इस बार किसी आतंकवादी संगठन का नाम सामने नहीं आया। सवाल है कि इजराइल द्वारा ईरान पर बनाया जा रहा यह दबाव कहीं अमेरिकी-इजराइल नीति का हिस्सा तो नहीं! एक मामला सुलझ भी नहीं पाता कि दूसरी घटना घट जाती है और हमारी जांच एजेंसियां उसके तार जोड़ने में लग जाती हैं। क्या काजमी भी उसी व्यवस्था के शिकार हुए जिसमें किसी भी आतंकी घटना के बाद शक के घेरे में कोई मुसलमान ही आता है?
जांच एजेंसियां जांच करें, इसमें किसी को एतराज नहीं होना चाहिए। लेकिन जांच को भटका कर किसी को कसूरवार बताने का रिवाज जम्हूरी हिंदुस्तान के लिए अच्छा नहीं है। काजमी एक स्वतंत्र पत्रकार रहे हैं, इसके बावजूद उनकी रिपोर्टिंग में वह धार देखी गई जो अमूमन दुनिया के बड़े मीडिया समूहों में भी नहीं देखा जाता है। तो क्या आज उन्हें अमेरिका और इजराइल की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने की कीमत चुकानी पड़ रही है? मुझे नहीं मालूम कि मोहम्मद अहमद काजमी के साथ क्या होगा, लेकिन इतना जरूर पता है कि ऐसे लोग बेगुनाह साबित हो जाने के बाद भी संदेह की नजर से देखे जाते हैं। अपने पर लगे दाग को यह मिटाने की कोशिश भी करें, तो वे साफ  नहीं होते। पूरी जिंदगी समाज के ताने को सहना एक अलग यातना है।
एक पत्रकार जो भारतीय लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का प्रतिनिधित्व करता आया हो, जो पत्रकार की हैसियत से दूसरों से प्रश्न करता आया हो, आज वह खुद सवालों के घेरे में है। जब जांच एजेंसियां उनसे जवाब-तलब कर रही होंगी तो उस वक्त हमारा लोकतंत्र चुपचाप खड़ा अपने कुछ सवालों के बारे में सोच रहा होगा। इस सबके बीच भारत और ईरान के रिश्तों में अगर दरार पड़ती तो उसे एक स्वाभाविक घटना विकास के रूप में देखा जाना चाहिए। कुछ बाहरी ताकतें हैं जो चाहती हैं कि विकासशील राष्ट्रों के बीच फूट डाल कर उन्हें विकसित होने से रोकें। जरूरत इस बात की है कि उनकी मंशा को समझते हुए भारत और ईरान के बीच पुराना विश्वास बहाल रखा जाए।